Natasha

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लेखनी कहानी -27-Jan-2023

बचपन में मार-पीट किसने न की होगी? किन्तु, मैं था गाँव का लड़का- दो-तीन महीने पहले ही लिखने-पढ़ने के लिए शहर में बुआजी के यहाँ आया था। इसके पहले, इस प्रकार दल बाँधकर, न तो मैंने मार-पीट ही की थी, और न किसी दिन इस तरह दो पूरे छतरी के बेंट ही मेरी पीठ के ऊपर टूटे थे। फिर भी मैं अकेला भाग न सका। इन्द्र ने एक बार मेरे मुँह की ओर देखकर कहा, “नहीं भागेगा, तो क्या खड़े-खड़े मार खाएगा? देख, उस तरफ से वे लोग आ रहे हैं-अच्छा, तो चल, खूब कसकर दौड़ें।”


यह काम तो मैं खूब कर सकता था। दौड़ते-दौड़ते जब हम लोग बड़ी सड़क पर पहुँचे, तब शाम हो गयी थी। दुकानों में रोशनी हो गयी थी और रास्ते पर म्युनिसिपल के केरॉसिन के लैम्प, लोहे के खम्भों पर, एक यहाँ और दूसरा वहाँ, जल रहे थे। आँखों में जोर होने पर, ऐसा नहीं है कि एक के पास खड़े होने पर दूसरा दिखाई न पड़ता। आततायियों की अब कोई आशंका नहीं थी। इन्द्र अत्यन्त स्वाभाविक सहज स्वर से बात कर रहा था। मेरा गला सूख रहा था, परन्तु आश्चर्य है कि इन्द्र रत्ती-भर भी नहीं हाँफा था। मानो कुछ हुआ ही न हो- न मारा हो, न मार खाई हो और न दौड़ा ही हो। जैसे कुछ हुआ ही न हो, ऐसे भाव से उसने पूछा, “तेरा नाम क्या है रे?”

“श्रीकांत।”

“श्रीकांत? अच्छा।” कहकर उसने अपनी जेब से मुट्ठी-भर सूखी पत्ती बाहर निकाली। उसमें से कुछ तो उसने खा ली और कुछ मेरे हाथ में देकर कहा, “आज खूब ठोका सालों को, ले खा।”

“क्या है यह?”

“बूटी।”

मैंने अत्यन्त विस्मित होकर कहा, “भाँग? यह तो मैं नहीं खाता।”

उसने मुझसे भी अधिक विस्मित होकर कहा, “खाता नहीं? कहाँ का गधा है रे। खूब नशा होगा- खा, चबाकर लील जा।”

नशे की चीज का मजा उस समय ज्ञात नहीं था; इसलिए सिर हिलाकर मैंने उसे वापस कर दिया। वह उसे भी चबाकर निगल गया।

“अच्छा, तो फिर सिगरेट पी।” यह कहकर उसने जेब से दो सिगरेट और दियासलाई बाहर निकाली। एक तो उसने मेरे हाथ में दे दी और दूसरी अपने हाथ में रखी। इसके बाद, वह अपनी दोनों हथेलियों को एक विचित्र प्रकार से जुटाकर, उस सिगरेट को चिलम बनाकर जोर से खींचने लगा। बाप रे,- कैसे जोर से दम खींचा कि एक ही दम में सिगरेट की आग सिरे से चलकर नीचे उतर आई! लोग चारों तरफ खड़े थे- मैं बहुत ही डर गया। मैंने डरते हुए पूछा, “पीते हुए यदि कोई देख ले तो?”

“देख ले तो क्या? सभी जानते हैं।” यह कहकर स्वच्छन्दता से सिगरेट पीता हुआ वह चौराहे पर मुड़ा और मेरे मन पर एक गहरी छाप लगाकर, एक ओर को चल दिया।

आज उस दिन की बहुत-सी बातें याद आती हैं। सिर्फ इतना ही याद नहीं आता, कि उस अद्भुत बालक के प्रति, उस दिन मुझे प्रेम उत्पन्न हुआ था, अथवा यों खुले आम भाँग और तमाखू पीने के कारण, मन ही मन घृणा। इस घटना के बाद करीब एक महीना बीत गया। एक दिन रात्रि जितनी उष्ण थी उतनी ही अंधेरी। कहीं वृक्ष की एक पत्ती तक न हिलती थी। सब छत पर सोए हुए थे। बारह बज चुके थे, परन्तु किसी की भी आँखों में नींद का नाम न था। एकाएक बाँसुरी का बहुत मधुर स्वर कानों में आने लगा। साधारण 'रामप्रसादी' सुर था। कितनी ही दफे तो सुन चुका था, किन्तु बाँसुरी इस प्रकार मुग्ध कर सकती है, यह मैं न जानता था। हमारे मकान के दक्षिण-पूर्व के कोने में एक बड़ा भारी आम और कटहल का बाग था। कई हिस्सेदारों की सम्पत्ति होने के कारण कोई उसकी खोज-खबर नहीं लेता था, इसलिए पूरा बाग निबिड़ जंगल के रूप में परिणत हो गया था। गाय-बैलों के आने-जाने से उस बाग के बीच में से केवल एक पतली-सी पगडंडी बन गयी थी। ऐसा मालूम हुआ कि मानो उसी वन-पथ से बाँसुरी का सुर क्रमश: निकटवर्ती होता हुआ आ रहा है। बुआ उठकर बैठ गयीं और अपने बड़े लड़के को उद्देश्य कर बोलीं, “हाँ रे नवीन, यह बाँसुरी राय-परिवार का इन्द्र ही बजा रहा है न?” तब मैंने समझा कि इस बंसीधारी को ये सभी चीन्हते हैं। बड़े भइया ने कहा, “उस हतभागे को छोड़कर ऐसी दूसरा कौन बजायेगा और उस जंगल में ऐसा कौन है जो ढूँकेगा?”

“बोलता क्या है रे? वह क्या गुसाईं के बगीचे से आ रहा है?”

बड़े भइया बोले, “हाँ।”

ऐसे भयंकर अन्धकार में उस अदूरवर्ती गहरे जंगल का खयाल करके बुआ मन ही मन सिहर उठीं और डर भरे कण्ठ से प्रश्न कर उठीं, “अच्छा, उसकी माँ भी क्या उसे नहीं रोकती? गुसाईं के बाग में तो न जाने कितने लोग साँप के काटने से मर गये हैं- उस जंगल में इतनी रात को वह लड़का आया ही क्यों?”

बड़े भइया कुछ हँसकर बोले, “इसलिए कि उस मुहल्ले से इस मुहल्ले तक आने का वही सीधा रास्ता है। जिसे भय नहीं है, प्राणों की परवाह नहीं है, वह क्यों बड़े रास्ते से चक्कर काटकर आएगा माँ? उसे तो जल्दी आने से मतलब, फिर चाहे उस रास्ते में नदी-नाले हों- चाहे साँप-बिच्छू और बाघ-भालू हों!”

“धन्य है रे लड़के, तुझे!” कहकर बुआ एक नि:श्वास डालकर चुप हो रहीं। वंशी की ध्वानि क्रमश: सुस्पष्ट होती गयीं और फिर धीरे-धीरे अस्पष्ट होती हुई दूर जाकर विलीन हो गयी।

यही था वह इन्द्रनाथ। उस दिन तो मैं यह सोचता रहा था कि क्या ही अच्छा होता, यदि इतना अधिक बल मुझमें भी होता और मैं भी इसी तरह मार-पीट कर सकता और आज रात्रि को जब तक, सो न गया, तब तक यही कामना करता रहा कि यदि किसी तरह ऐसी वंशी बजा सकता!

परन्तु उससे सद्भाव किस तरह पैदा करूँ? वह तो मुझसे बहुत ऊँचे पर है। उस समय वह स्कूल में भी न पढ़ता था। सुना था कि हेडमास्टर साहब ने अन्याय करके उसके सिर पर ज्यों ही गधे की टोपी लगाने का आयोजन किया, त्यों ही वह मर्माहत हो, अकस्मात् हेडमास्टर की पीठ पर एक धौल जमाकर, घृणा भाव से स्कूल की रेलिंग फाँदता हुआ घर भाग आया और फिर गया ही नहीं। बहुत दिनों बाद उसी के मुँह से सुना था कि वह एक न कुछ अपराध था। हिंदुस्तानी पंडितजी को क्लास के समय में ही नींद आने लगती थी, सो एक बार जब वे नींद ले रहे थे तब, उनकी गाँठ बँधी चोटी को उसने कैंची से काटकर जरा छोटा भर कर दिया था! और उससे उनकी विशेष कुछ हानि भी नहीं हुई, क्योंकि पण्डितजी जब घर पहुँचे तब अपनी चोटी अपनी चपकन की जेब में ही पड़ी हुई मिल गयी! वह कहीं खोई नहीं गयी, फिर भी पंडितजी का गुस्सा शान्त क्यों न हुआ और क्यों वे हेडमास्टर साहब के पास नालिश करने गये- यह बात आज तक भी इन्द्र की समझ में नहीं आई। परन्तु फिर भी यह बात वह ठीक समझ गया था कि स्कूल से रेलिंग फाँदकर घर आने का रास्ता तैयार हो जाने पर फिर फाटक में से वापिस लौटकर जाने का रास्ता प्राय: खुला नहीं रह जाता। और फाटक का रास्ता खुला रहा या नहीं रहा, यह देखने की उत्सुकता भी, उसे बिल्कुलल नहीं हुई। यहाँ तक कि सिर पर 10-20 अभिभावकों के होने पर भी, उनमें से कोई भी, उसका मुँह किसी भी तरह फिर विद्यालय की ओर नहीं फेर सका।

इन्द्र ने कलम फेंककर नाव का डाँड़ हाथ में ले लिया। तब से वह सारे दिन गंगा में नाव के ऊपर रहने लगा। उसकी अपनी एक छोटी-सी डोंगी थी। चाहे आँधी हो चाहे पानी, चाहे दिन हो चाहे रात, वह अकेला उसी पर बना रहता। कभी-कभी एकाएक ऐसा होता कि वह पश्चिम की गंगा के इकतरफा बहाव में अपनी डोंगी को छोड़ देता, डाँड़ पकड़े चुपचाप बैठा रहता और दस-दस, पन्द्रह-पन्द्रह दिन तक फिर उसका कुछ भी पता न लगता।

एक दिन इसी प्रकार जब वह बिना किसी उद्देश्य के अपनी डोंगी बहाए जा रहा था, तब उसके साथ मिलन की गाँठ को सुदृढ़ करने का मुझे मौका मिला। उस समय मेरी यह एकमात्र कामना थी कि उससे किसी न किसी प्रकार मित्रता का सम्बन्ध दृढ़ किया जाए, और यही बतलाने के लिए मैंने इतना कहा है।

किन्तु जो लोग मुझे जानते हैं वे तो कहेंगे कि यह तो तुम्हें नहीं सोहता भैया, तुम ठहरे गरीब के लड़के और फिर लिखना-पढ़ना सीखने के लिए अपना गाँव छोड़कर पराए घर आकर रहे हो, फिर तुम उससे मिले ही क्यों और मिलने के लिए इतने व्याकुल ही क्यों हुए? यदि ऐसा न किया होता, तो आज तुम-

ठहरो, ठहरो, अधिक कहने की जरूरत नहीं है। यह बात हजारों लोगों ने लाखों ही बार मुझसे कही है; स्वयं खुद मैंने ही यह प्रश्न अपने आपसे करोड़ों बार पूछा है, परन्तु सब व्यर्थ। वह कौन था? इसका जवाब तुममें से कोई भी नहीं दे सकता और फिर, “यदि ऐसा न हुआ होता तो मैं क्या हो जाता?” इस प्रश्न का समाधन भी तुममें से कोई कैसे कर सकता है? जो सब कुछ जानते हैं, केवल वे (भगवान) ही बता सकते हैं कि क्यों इतने आदमियों को छोड़कर एकमात्र उसी हतभागे के प्रति मेरा सारा हृदय आकृष्ट हुआ और क्यों उस मन्द से मिलने के लिए मेरे शरीर का प्रत्येक कण उन्मुख हो उठा।

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